मूर्ति पूजा का विरोध और उसका कारण

सनातन धर्म की मूर्ति पूजा का विरोध और उसका कारण:
राजा राम मोहन राय और दयानंद सरस्वतीजी से राहुल गांधी तक

लेखक: डॉ. कौशिक चौधरी

सन् 1757 के पहले कभी भारत में मूर्ति पूजा को ग़लत बताकर विरोध नहीं हुआ था। हमेशा उस साकार रूप से ऊपर उठकर ईश्वर के निराकार रूप की अनुभूति करने की प्रेरणा दी जाती। क्योंकि वेदों में ईश्वर निराकार और साकार दोनों रूप में था। अथर्ववेद में यंत्र मार्ग की साधना के रूप में किसी मूर्ति या आकार में निराकार ब्रह्म की प्राण प्रतिष्ठा करके उसके सामने अपनी साधना और भक्ति को केंद्रित करने का मार्ग दे दिया गया था। लेकिन सन् 1757 में अंग्रेजों ने प्यासी का युद्ध जीत कर बंगाल में अपनी सत्ता की नींव डाली। तब पूरा भारत मराठाओं के हाथ में था। दिल्ली का मुग़ल बादशाह भी मराठाओं को चौथ भरता था। पर वहाँ से धीरे धीरे अंग्रेजों ने अपनी सत्ता फैलाई और 61 साल बाद सन् 1818 में पेशवा को हराकर मराठा साम्राज्य को अपने हाथ में ले लिया। यह वह पहला सीमा चिह्न था जब भारत की सत्ता अंग्रेजों के हाथ में स्थायी होनी शुरू हो गई। तब तक बंगाल अंग्रेज़ी सत्ता और सभ्यता का गढ़ बन चुका था। उसके इक्कीस साल पहले ही बंगाली ब्राह्मण राजा राम मोहन रॉय ने ईसाई मिशनरी विलियम केरी के साथ मिलकर भारत में ईसाई सिद्धांतों को समझाने के लिए एक किताब लिखी थी, जिसमें सिर्फ़ ईसाइयों की तरह एक सच्चे ईश्वर (one true God) की बात थी, और मूर्तियों में रहे अनेकों ईश्वरों का खंडन था। वही राजा राम मोहन राय 1814 में ‘आत्मीय सभा’ नाम की संस्था खोलकर हिंदू समाज में सुधार कर रहे थे। अंग्रेजों के भारत में पाँव जमाने के बाद हिंदू समाज में सुधार करने की यह मानसीकता इतिहास की धारा में अचानक टपक पड़ी सी नज़र आती है। और राजा राम मोहन राय उसके सूत्रधार दिखते है। 1818 में पेशवाओं की हार के बाद यह हिंदू सुधार की दौड़ पूरे भारत में फेल गई, ख़ास कर वहाँ जहां अंग्रेज सत्ता आ चुकी थी। ऐसे ही अंग्रेज सत्ता में आ चुके गुजरात में 1824 में दयानंद सरस्वती का जन्म हुआ।चार साल बाद राम मोहन रॉय ने ब्रह्मों समाज की स्थापना की, जिसने हिंदू सुधार की प्रवृत्तियों को और प्रचलित बनाया। इसे ही काल में बड़े हो रहे किशोर अवस्था के दयानंद सरस्वती जो की एक शिव भक्त थे, वे शिवलिंग के पास एक चूहे को प्रसाद खाता देखते है, और मूर्ति पूजा के ख़िलाफ़ विद्रोही हो जाते है। तर्क यह था कि अगर शिवलिंग में भगवान है तो उसने बाहर निकलकर चूहे को प्रसाद खाने से क्यों नहीं रोका। इसलिए मूर्ति पूजा ग़लत है। अब यह तर्क आज हम सुनते है तो हमें किसी बच्चे की नासमझी लगती है, ऐसा ही 1757 के पहले के भारतीयों को भी लगता। पर 1818 से 1893 तक का वह अंग्रेज उदय का काल कुछ ऐसा था की इस घटना को दयानंद सरस्वती के जीवन का टर्निंग पॉइंट माना जाता है। दयानंद सरस्वती ने कुछ सालों बाद संन्यास ले लिया, और उसी हिंदू समाज के सुधार आंदोलनों में जुड़ गए। वह आंदोलन जो भारतीय विचारकों के द्वारा भारतीय समाज को अंग्रेजों की नज़र में सभ्य दिखाने के लिए किया जा रहा था। और इस काम में दयानंद सरस्वती वह पहले इंसान बने जिन्होंने वेदों को एक साधन के रूप में उपयोग किया। दयानंद सरस्वती ने यह दिखाने के लिए की हमारें वेद भी इस्लाम और ईसाईयत की तरह एक ही निराकार ईश्वर की बात करते है, और वेदों में मूर्ति पूजा या प्रकृति पूजा कहीं पर नहीं है – वेदों में यह तीन छेड़खानियां की।

चार साल बाद राम मोहन रॉय ने ब्रह्मों समाज की स्थापना की, जिसने हिंदू सुधार की प्रवृत्तियों को और प्रचलित बनाया। इसे ही काल में बड़े हो रहे किशोर अवस्था के दयानंद सरस्वती जो की एक शिव भक्त थे, वे शिवलिंग के पास एक चूहे को प्रसाद खाता देखते है, और मूर्ति पूजा के ख़िलाफ़ विद्रोही हो जाते है। तर्क यह था कि अगर शिवलिंग में भगवान है तो उसने बाहर निकलकर चूहे को प्रसाद खाने से क्यों नहीं रोका। इसलिए मूर्ति पूजा ग़लत है। अब यह तर्क आज हम सुनते है तो हमें किसी बच्चे की नासमझी लगती है, ऐसा ही 1757 के पहले के भारतीयों को भी लगता। पर 1818 से 1893 तक का वह अंग्रेज उदय का काल कुछ ऐसा था की इस घटना को दयानंद सरस्वती के जीवन का टर्निंग पॉइंट माना जाता है। दयानंद सरस्वती ने कुछ सालों बाद संन्यास ले लिया, और उसी हिंदू समाज के सुधार आंदोलनों में जुड़ गए। वह आंदोलन जो भारतीय विचारकों के द्वारा भारतीय समाज को अंग्रेजों की नज़र में सभ्य दिखाने के लिए किया जा रहा था। और इस काम में दयानंद सरस्वती वह पहले इंसान बने जिन्होंने वेदों को एक साधन के रूप में उपयोग किया। दयानंद सरस्वती ने यह दिखाने के लिए की हमारें वेद भी इस्लाम और ईसाईयत की तरह एक ही निराकार ईश्वर की बात करते है, और वेदों में मूर्ति पूजा या प्रकृति पूजा कहीं पर नहीं है – वेदों में यह तीन छेड़खानियां की।

  1. सनातन धर्म में कोई भी वेद संहिता, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद् इन चार प्रकार के ग्रंथ से बनता है। संहिताओं में 33 प्रकार के देवताओं के आहवान के रूप में ब्रह्म का आहवान है। ब्राह्मण ग्रंथ में वह आहवान कैसे करना उनकी विधियाँ और प्रक्रिया है। आरण्यक वानप्रस्थ साधकों ने लिखे है, जिसमें ब्रह्म सिर्फ़ प्रकृति में ही ना होकर प्राणियों के आत्मा रूप में भी है – इसका चिंतन है। और उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म के बीच का यह संबंध विभिन्न स्तरों से गुजरता हुआ आख़िरी एकता यानी अद्वैत में स्थापित होता है। दयानंद सरस्वती ने सबसे पहले वेदों के अर्थ को संहिताओं तक सीमित किया। कहा गया कि सिर्फ़ संहिता ही वेद है, और वह स्वप्रमाणित है। उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं। जबकि बाक़ी के तीन ग्रंथ जहां ज्ञान और ज्यादा विकसित और गहन होता जाता है, जहां ‘सबकुछ ब्रह्म से युक्त है’ इस विचार के साथ यंत्रों के रूप में मूर्ति पूजा और प्रकृति एवं प्रतीकों की पूजा स्वीकार्य बन जाती है – उन्हें जूठलाया जा सकता है।
  2. लेकिन उन्होंने संहिताओं को भी ज्यों का त्यों नहीं छोड़ा। सारे वेद दर्शन में प्रकृति ईश्वर से उत्पन्न होती थी। इसलिए प्रकृति में ईश्वर या ब्रह्म व्याप्त होता था। एक सांख्य में जहां प्रकृति पुरुष रूपी चेतना से अलग थी, वहाँ भी पुरुष के प्रकृति में मिलने से ही सृजन शुरू होता था। इसलिए भारत के सारे दर्शनों में प्रकृति ईश्वर से व्याप्त थी। पर दयानंद सरस्वती ने यह बात बदल दी। उन्होंने कहा कि वेद त्रयी कि बात कर रहें है, जहां ईश्वर, जीव और प्रकृति – यह तीनों आदि और अनंत है। यानी की इन तीनों का ना शुरू में कहीं मिलन स्थान है, ना अंत में। वे तीनों स्वतंत्र है। यानी की प्रकृति में ब्रह्म या ईश्वर नहीं है।
  3. और फिर तीसरी छेड़खानी उन्होंने की संहिता की ऋचाओं के अर्थ में। जहां जहां इंद्र, अग्नि, वरुण, आदित्य और रुद्र जैसे देवताओं का आहवान था, वहाँ उन्होंने उन सब 33 नामों का एक ही अर्थ किया, वह अर्थ था ब्रह्म या ईश्वर। यानी की यह सब ब्रह्म के ही नाम है, और इन नामों के ज़रिए उस निराकार ईश्वर का ही आहवान हो रहा है, प्रकृति के देवताओं का नहीं।

बस, हो गया सामान तैयार। जहां हमारे वेद भी इस्लाम और ईसाईयत की तरह कह रहे थे की ‘सिर्फ़ एक निराकार ईश्वर (ब्रह्म, अल्लाह और God) की ही पूजा की जानी चाहिए। कोई प्रकृति के तत्वों, मूर्ति या प्रतीकों की पूजा वेदों में वर्जित है। यह सब बाद में जोड़ा गया।’ तो जब दयानंद सरस्वती ने ‘वेदों की ओर चलो’ का नारा दिया, तब उन्होंने उन वेदों की ओर जाने का नारा नहीं दिया जो अंग्रेजों के आने से पहले हज़ारों वर्ष से ऋषि मुनि मानते थे। वह इन तीन फेरफारों के साथ इस्लाम और ईसाईयत के आदर्श को बताने वाले दयानंद सरस्वती के वेदों की ओर चलने का नारा था। तो अंग्रेजों के प्रति ग़ुलामी की और हीनता की भावना से उत्पन्न हुआ वह सुधार आंदोलन, दयानंद सरस्वती के साथ वेदों को तीतर बितर करने की हद तक गया। और विधि का विधान देखिए, इस पूरे सर्कस का अंत कब आरंभ हुआ? जब उसी कोई मूर्ति की आराधना और भक्ति करते हुए कोई रामकृष्ण परमहंस जैसा परम ब्रह्मज्ञानी सामने आया। और उस ब्रह्मज्ञानी ने पश्चिम के सारे तत्वज्ञान को पढ़कर नास्तिक अवस्था में ‘क्या तुमने ईश्वर को देखा है? अगर हाँ, तो आगे बात करो वरना मत करो।’ – ऐसा कहनेवाले विवेकानंद को आत्मज्ञान कराया। वह स्वयं भी उस मूर्ति से ऊपर उठकर अद्वैत में लीन हुए, और विवेकानंद को भी करवाया। और विवेकानंद ने प्राचीन सनातन धर्म को उसके मूल रूप में पुनर्जीवित करते हुए पूरे विश्व में जो क्रांति रची, उससे वह हिंदू समाज सुधार की बाते बंद हो गई, और आध्यात्मिक क्रांति के साथ स्वतंत्रता के आंदोलन शुरू हो गए।

फिर भी, आज भी जिनके भीतर वह अंग्रेजों के सामने हीन होने की मानसिक दासता भरी हुई है, और जो वेदान्त के उस आधुनिक उद्धव के साथ नहीं जुड़ा है, वह आज भी हिंदू धर्म को ईसाईयत और इस्लाम की पूजा पद्धति के रूप में देखना चाहते है। उनके लिए आज भी वह कट्टरता सनातन धर्म की विस्तृतता से ज्यादा अनुकरणीय है। लेकिन चोरी छिपे वह भी किसी क्रॉस के निशान या जीसस की मूर्ति का सहारा लेते है, वह भी अल्लाह को पूजने के लिए किसी एक ख़ास पत्थर या इमारत के सामने मुँह रखकर किसी साकार स्थान का सहारा खोजते है। राहुल गांधी और उनके जैसे सारे लोग जो आज भी हिंदू धर्म में मूर्ति पूजा का विरोध करते है, उनके मन आज भी उस ग़ुलामी काल में क़ैद है। वे रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद की उस वेदान्त की क्रांति से नहीं गुजरे। वो विस्तृतता और गहनता उनकी हैसियत के बाहर है।